Monday, November 2, 2009

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अब तो हंसी के भी ऊँचे दाम होते हैं 
और खुशियों के पैमाने जाम होते हैं.
मुद्दतें बीत गयी चौपाल पे बैठे हुए 
आखिर शाम को भी तो कई काम होते हैं.

एक अरसे से उसने हाल मेरा पुछा नहीं
अब जनाजों में ही दुआ सलाम होते हैं
कट गया चौक से एक और दरख्त 
इमारती लकडी के मंहगे दाम होते हैं


उस माँ को कहते सुना मिटटी में न खेल
बिमारियों के भी कई नाम होते हैं
और छूट गया खेल कंचो का मोहल्ले से
ऊँचे तबकों में मां बाप बदनाम होते हैं


आज देखा उसने मुझे इत्मिनान से लेकिन 
हर मुहब्बत के जुदा अंजाम होते हैं 
तुझको रुसवा न करेंगे ये वादा रहा
आखिर शायरों के भी कुछ ईमान होते हैं

10 comments:

  1. मित्र अद्भुत पंक्तियाँ,
    यार तुम्हारी क्षमता पर शक तो कभी था नही पर इतनी विस्मकारी कविता!!! उम्मीद करता हूँ की भविष्य में भी तुम इसी क्षमता से कायम रहोगे.. :)

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  2. पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ की आप मेरे ब्लॉग पर आए और टिपण्णी दिए ! मेरे इस ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है -
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
    मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपने बहुत ही सुंदर और लाजवाब कविता लिखा है जो काबिले तारीफ है! लिखते रहिये!

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  3. अच्छा लिखा है आपने,

    "सच में" पर आने और अपना कीमती वख्त और comment करने के लिये ह्रदय से धन्यवाद! आते रहें!

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  4. bahut achchha likha aapne ...mere blog me aakar tippanee karne ka shukriya....

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  5. हितेश,
    आज चौपालें सूनी पड़ती जा रही हैं .मनुष्य अकेला और स्वार्थी होता जा रहा है .संवाद और आत्मीयता घटती जा रही है .आपने 'वक्त 'का चेहरा भी दिखाया और आईना भी .

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  6. धन्यवाद ,
    सही कहा आपने, आज कल गाँवो में भी महानगरीय संस्कृति का प्रवेश हो चुका है. चौपालें तो पुरानी फिल्मो में ही दिखाई देती हैं

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  7. ....और इतनी अच्छी कविता पर कुछ अच्छा न कहा तो पढ़ने वालों के लिए भी बहुत इल्जाम होते हैं...

    धन्यवाद हितेश, मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और सुन्दर शब्दों के लिए भी.

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. रात भीगी तो थके शहर को याद आने लगे
    नींद के गाँव जो आबाद है यादों के पलकों के तले.....
    ..........सम सामायिक वास्तविकताओ पर जमी धूल को शब्दों की फूंक से उड़ा कर आपका यह प्रयास भूली गलियों को फिर से उकेरने में सक्छ्म हैं...

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